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Saturday, January 24, 2009

दिल को बचाने का विकल्प है बाईपास सर्जरी


नई दिल्ली। दवाइयों एवं एंजियोप्लास्टी जैसी सर्जरी रहित विधियों से जब मौत की कगार पर पहुंच चुके दिल के मरीजों को बचाना संभव नहीं हो पाता तब मरीज को जीवनदान देने के लिए हृदय की बाईपास सर्जरी ही एकमात्र रास्ता बचता है।
बाईपास सर्जरी अर्थात कोरोनरी आर्टरी बाईपास ग्राफ्टिंग [सीएबीजी] के जरिए हृदय में दोबारा रक्त प्रवाह बहाल करके मरीज की जान बचाई जाती है। सीने में दर्द को एंजाइना अथवा दिल के दौरे का संकेत होता है जिसकी अनदेखी जानलेवा साबित हो सकती है। इन दोनों जानलेवा स्थितियों का कारण हृदय की एक या अधिक धमनियों में रुकावट आना है और मरीज की जान बचाने के लिए एंजियोप्लास्टी अथवा सर्जरी के माध्यम से अवरुद्ध धमनी या धमनियों को खोलना जरूरी होता है।
किसी एक धमनी में अवरोध होने पर आमतौर पर एंजियोप्लास्टी का ही सहारा लिया जाता है, लेकिन जब एक या अधिक कोरोनरी धमनियों में बहुत अधिक जमाव होने पर या उनकी उपशाखाएं बहुत अधिक सिकुड़ जाए जाए तो बाईपास सर्जरी यानी कोरोनरी आर्टरी बाइपास ग्राफ्टिंग [सीएबीजी] का सहारा लेना पड़ता है।
निम्न स्थितियों में बाइपास सर्जरी जरूरी होती है-
1. जब एंजियोग्राफी से यह पता चले कि मरीज को कभी भी दिल का दौरा पड़ सकता है। मरीज के सीने में दर्द उठने के कम से कम छह घंटे पहले ही बाईपास सर्जरी कर दी गई हो। हृदय को दिल के दौरे से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है।
2. दिल के दौरे से उबरने के बाद भी सीने में दर्द कायम रहने अथवा मरीज की हालत गंभीर रहने पर।
3. एंजाइना के लक्षण नहीं होने पर भी जब ईसीजी स्ट्रेस टेस्ट और कोरोनरी एंजियोग्राफी से पता चले कि मरीज की कई धमनियों में रुकावट है।
हृदय शल्य चिकित्सकों के अनुसार बाईपास सर्जरी के लिए छाती के बीच में चीरा लगाना पड़ता है। इसलिए पुरुषों में आपरेशन से पहले रेजर से छाती के बाल हटा दिए जाते हैं ताकि संक्रमण का खतरा न हो। आपरेशन से पहले रोगी को बेहोश कर दिया जाता है। हृदय के क्रियाकलापों का पता लगाने के लिए कार्डियक मानीटर लगा दिया जाता है।
आपरेशन के लिए पहले छाती के बीच की हड्डी [स्टरनम] को काटकर हृदय को खोल दिया जाता है। उसके बाद उसे हार्ट लंग मशीन से जोड़ दिया जाता है जिससे हृदय और फेफड़ों का काम यह मशीन करने लगती है। हृदय को एक ऐसे घोल में नहला दिया जाता है जिससे उसका तापमान कम हो जाता है और उसका धड़कना भी बंद हो जाता है। उसके बाद ग्राफ्टिंग का काम शुरू किया जाता है। इसके लिए पहले से ही पैर की नस या पेट की धमनी का ग्राफ्ट तैयार रखा जाता है और जरूरत के हिसाब से बाईपास ग्राफ्ट कर दिया जाता है। इसके बाद हृदय और फेफड़ों को रक्त संचार व्यवस्था से वापस जोड़ दिया जाता है और वे पहले की तरह काम करने लगते हैं। हार्ट लंग मशीन को हटा दिया जाता है और हृदय की सतह पर दो पेसमेकर की तारें लगा दी जाती हैं। पेसमेर की तारों को अस्थाई पेसमेकर से जोड़ दिया जाता है। दिल की धड़कन के अनियमित होने पर यह पेसमेकर उसे नियंत्रित कर लेता है। छाती की हड्डियों को तारों से मजबूती से सिलकर त्वचा में टांके लगा दिए जाते हैं।
आपरेशन में तीन-चार घंटे का समय लगता है और इस दौरान रोगी को चार से छह यूनिट तक रक्त चढ़ाना पड़ सकता है।
आपरेशन के बाद अगले 24 से 48 घंटे तक मरीज को डाक्टर व नर्स आदि के निगरानी में रिकवरी रूम में रखा जाता है। कार्डियक मानीटर की तारें इलेक्ट्राड के जरिए मरीज की छाती से लगी होती है और ईसीजी तथा हृदय की गति लगातार रिकार्ड होते रहते हैं। एक धमनी में एक केन्यूला [नली] डली रहती है जिसे मरीज के रक्तचाप का पता चलता है, जबकि दूसरा केन्यूला गर्दरा की नस में डला होता है और यह नस के भीतर का दाब बताता है। मरीज की छाती में भी दो नली डली होती हैं जिनसे छाती के भीतर एकत्र हो रहा द्रव बाहर आता रहता है। ये सारी नलियां आपरेशन के एक दिन बाद निकाल दी जाती हैं। इनके अलावा आपरेशन के 16 से 24 घंटे बाद तक रोगी की सांस नली में एक एंडोट्रेकियल टयूब डली रहती है। यह नली रेस्पिरेटर यंत्र से जुड़ी होती है। यह रोगी को श्वसन में मदद करता है। जब रोगी अच्छी तरह सांस लेने लगता है तो रेस्पिरेटर को हटा दिया जाता है। जब तक यह नली श्वास नली में होती है रोगी न तो कुछ खा पी सकता है और न ही बातचीत कर पाता है।
रोगी के मुंह और नाक पर एक आक्सीजन मास्क भी लगा दिया जाता है, ताकि रोगी को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन मिलती रहे। आमतौर पर आपरेशन के 10-20 दिन बाद रोगी को अस्पताल से छुट्टी मिल जाती है। तब तक उसकी छाती और पैर के जख्म भी सूख जाते हैं।
हालांकि पैर से नस निकालने के कारण कुछ दिनों तक पैर में सूजन रह सकती है। लेकिन पैर ऊपर उठाकर आराम करने और चलते समय पैर पर क्रैप बैंडेज बांधने से सूजन कम हो जाती है। वह घर में हल्के-फुल्के काम कर सकता है। दो ढाई महीने बाद रोगी धीरे-धीरे सीढि़यां चढ़ सकता है और दफ्तर भी जा सकता है।
बाईपास सर्जरी के बाद भी रोगी को कुछ दवाओं का सेवन करते रहना जरूरी होता है। धमनियों में खून के थक्के बनने की प्रक्रिया को रोकने के लिए रोजाना डिस्प्रिन की एक गोली लेनी होती है। इसके अलावा यदि मरीज को मधुमेह या उच्च रक्तचाप है तो उसकी भी दवाएं लेनी पड़ती हैं।
बाईपास सर्जरी की सफलता रोगी के खानपान और आचार व्यवहार पर निर्भर करती है। एहतियात नहीं बरतने पर कुछ सालों में हृदय की दूसरी कोरोनरी धमनियां और यहां तक कि बाईपास लगाई गई धमनियों और ग्राफ्ट में रुकावट आ सकती है और दोबारा बाईपास सर्जरी कराने की नौबत आ सकती है। आपरेशन के बाद 85 से 90 फीसदी रोगियों का एंजाइना ठीक हो जाता है। लेकिन कुछ रोगियों में कुछ सालों के बाद एंजाइना के लक्षण दोबारा प्रकट हो जाते हैं।
कैसे बनाए जाते हैं बाईपास-
बाईपास दो तरीके से बनाए जाते हैं। एक या दो जगह बाईपास की जरूरत पड़ने पर इंटरनल मेमरी धमनी का रास्ता बदलकर उसे कोरोनरी धमनी के संकरे हिस्से के अगले भाग में जोड़ दिया जाता है। हृदय के उस भाग में रक्त प्रवाह सुचारु हो जाता है। लेकिन दो से अधिक जगह बाईपास के लिए रोगी के पैर की नस [लांग सेफनस वेन] का इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए सबसे पहले रोगी के पैर से यह नस निकाल कर उसे उलट लिया जाता है ताकि उसकी बिना वाल्व वाली साफ-सुथरी सतह अंदर की ओर आ जाए। उसके बाद जरूरत के अनुसार उसके टुकडे़ काट लिए जाते हैं। टुकडे़ का एक सिरा महाधमनी से जोड़ दिया जाता है और दूसरा सिरा कोरोनरी धमनी के संकरे हिस्से के आगे जोड़ दिया जाता है। इसी तरह आवश्यकतानुसार एक से अधिक बाईपास ग्राफ्ट किए जा सकते हैं। इससे ह्रदय मांसपेशियों में रक्त का प्रवाह सामान्य हो जाता है।
हालांकि कुछ हृदय शल्य चिकित्सक पैर की धमनी के बजाय पेट में जाने वाले गैस्ट्रो एपिप्लोइक आर्टरी का भी इस्तेमाल करते हैं।

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