एकादशी एक माह में दो बार आती हैं। इसे भगवान विष्णु का ह्रदय कहा गया है। यदि कोई भगवान विष्णु को प्रसन्न करना चाहे तो एकादशी का व्रत सबसे अच्छा उपाय है। इस व्रत को करने से मन शुद्ध होता है। धर्मराज युद्धिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा - हे जनार्दन फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? उसकी विधि क्या है सो सब कहिए।
श्री कृष्ण भगवान बोले कि हे राज राजेश्वर फालगुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य की विजय मिलती है। इस विजया एकादशी के माहात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
एक समय देवर्षि नारदजी ने जगतपिता ब्रम्हा जी से पूछा कि ब्रम्हा जी! आप मुझे फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की विजया नामक एकादशी का व्रत विधान बतलाइए। ब्रम्हा जी बोले कि हे नारद विजया एकादशी का व्रत प्राचीन तथा नए पापों को नष्ट करने वाला है। यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करता है।
त्रेता युग में श्रीरामचन्द्र जी को जब चौदह वर्षो के लिए बनवास हो गया तब वह श्रीलक्ष्मण जी सहित पंचवटी में निवास करने लगे। इस जगह रावण ने श्री सीता जी का हरण किया। इस दुखद समाचार से श्रीरामजी बहुत व्याकुल हुए और श्रीसीताजी की खोज में चल दिए। घूमत-घूमते वे मरणासन्न जटायु के पास पहुंचे। कुछ आगे चलकर इनकी सुग्रीव के साथ मित्रता हो गई और बाली का वध किया। श्री हनुमानजी ने लंका में जाकर सीताजी का पता लगाया। वहां से लौटकर हनुमान जी श्री रामचन्द्र जी के पास आए और सब समाचार कहे। श्री रामचन्द्र जी ने सुग्रीव की सम्मति लेकर वानरों, भालुओं की सेना सहित लंका को प्रस्थान किया। जब श्रीरामचन्द्र जी समुद्र के किनारे पहुंच गए तब उन्होंने महान अगाध, मगरमच्छ से युक्त समुद्र को देखकर श्रीलक्ष्मण जी से कहा - हे लक्ष्मण समुद्र को हम किस प्रकार पार कर सकेंगे।
श्री लक्ष्मणजी बोले कि हे रामजी, यहां से करीब आधा योजन की दूरी पर कुमारी द्वीप पर बकदालभ्य नाम के मुनि रहते हैं। आप उनके पास जाकर इसका उपाय पूछिए। लक्ष्मण जी के वचनों को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बकदालभ्य ऋषि के पास गए और उनको प्रणाम करके बैठ गए। मुनि ने उनसे पूछा हे श्रीरामजी आप कहां से पधारे हैं। श्री राम बोले कि हे महर्षि मैं अपनी सेना सहित यहां आया हूं और राक्षसों को जीतने लंका जा रहा हूं। आप कृपाकर समुद्र पार करने का कोई उपाय बतलाइए। बकदालभ्य ऋषि बोले - हे श्रीरामजी मैं आपको एक उत्तम व्रत बतलाता हूं। फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का व्रत करने से तुम समुद्र से अवश्य ही पार होंगे और तुम्हारी विजय होगी।
हे श्री राम जी इस व्रत की विधि यह है। दशमी के दिन स्वर्ण, चांदी, तांबा या मिट्टी किसी का एक घड़ा बनावें। उस घड़े को जल से भरकर तथा उस पर पंचपल्लव (आम, पीपल, जामुन, बरगद व गूलर के पत्ते) रखकर वेदिका पर स्थापित करें। घड़े के नीचे सतनजा सात नाज मिले हुए और ऊपर जौ रखें। उस पर श्री नारायण भगवान की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित करें। एकादशी के दिन स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर धूप दीप नैवेद्य नारियल आदि से भगवान की पूजा करें।
उस दिन भक्ति पूर्व घड़े के सामने व्यतीत करें और रात्रि को भी उसी तरह बैठे रहकर जागरण करना चाहिए। द्वादशी के दिन नदी या तालाब के किनारे स्नान आदि से निवृत्त होकर उस घड़े को ब्राrाण को दे देना चाहिए। हे राम! यदि तुम इस व्रत को सेनापतियों के साथ करोगे तो अवश्य ही विजयी होंगे। श्रीरामचन्द्र जी ने विधिपूर्वक विजया एकादशी का व्रत किया और उसके प्रभाव से दैत्यों के ऊपर विजय पाई।
अत: हे राजन! जो मनुष्य इस व्रत को विधि पूर्वक करेगा, उसकी दोनों लोकों में विजय होगी। श्री ब्रम्हा जी ने नारदजी से कहा था कि पुत्र! जो इस व्रत का माहात्म्य सुनता है उसको वाजपेय यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।
श्री कृष्ण भगवान बोले कि हे राज राजेश्वर फालगुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य की विजय मिलती है। इस विजया एकादशी के माहात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
एक समय देवर्षि नारदजी ने जगतपिता ब्रम्हा जी से पूछा कि ब्रम्हा जी! आप मुझे फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की विजया नामक एकादशी का व्रत विधान बतलाइए। ब्रम्हा जी बोले कि हे नारद विजया एकादशी का व्रत प्राचीन तथा नए पापों को नष्ट करने वाला है। यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करता है।
त्रेता युग में श्रीरामचन्द्र जी को जब चौदह वर्षो के लिए बनवास हो गया तब वह श्रीलक्ष्मण जी सहित पंचवटी में निवास करने लगे। इस जगह रावण ने श्री सीता जी का हरण किया। इस दुखद समाचार से श्रीरामजी बहुत व्याकुल हुए और श्रीसीताजी की खोज में चल दिए। घूमत-घूमते वे मरणासन्न जटायु के पास पहुंचे। कुछ आगे चलकर इनकी सुग्रीव के साथ मित्रता हो गई और बाली का वध किया। श्री हनुमानजी ने लंका में जाकर सीताजी का पता लगाया। वहां से लौटकर हनुमान जी श्री रामचन्द्र जी के पास आए और सब समाचार कहे। श्री रामचन्द्र जी ने सुग्रीव की सम्मति लेकर वानरों, भालुओं की सेना सहित लंका को प्रस्थान किया। जब श्रीरामचन्द्र जी समुद्र के किनारे पहुंच गए तब उन्होंने महान अगाध, मगरमच्छ से युक्त समुद्र को देखकर श्रीलक्ष्मण जी से कहा - हे लक्ष्मण समुद्र को हम किस प्रकार पार कर सकेंगे।
श्री लक्ष्मणजी बोले कि हे रामजी, यहां से करीब आधा योजन की दूरी पर कुमारी द्वीप पर बकदालभ्य नाम के मुनि रहते हैं। आप उनके पास जाकर इसका उपाय पूछिए। लक्ष्मण जी के वचनों को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बकदालभ्य ऋषि के पास गए और उनको प्रणाम करके बैठ गए। मुनि ने उनसे पूछा हे श्रीरामजी आप कहां से पधारे हैं। श्री राम बोले कि हे महर्षि मैं अपनी सेना सहित यहां आया हूं और राक्षसों को जीतने लंका जा रहा हूं। आप कृपाकर समुद्र पार करने का कोई उपाय बतलाइए। बकदालभ्य ऋषि बोले - हे श्रीरामजी मैं आपको एक उत्तम व्रत बतलाता हूं। फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का व्रत करने से तुम समुद्र से अवश्य ही पार होंगे और तुम्हारी विजय होगी।
हे श्री राम जी इस व्रत की विधि यह है। दशमी के दिन स्वर्ण, चांदी, तांबा या मिट्टी किसी का एक घड़ा बनावें। उस घड़े को जल से भरकर तथा उस पर पंचपल्लव (आम, पीपल, जामुन, बरगद व गूलर के पत्ते) रखकर वेदिका पर स्थापित करें। घड़े के नीचे सतनजा सात नाज मिले हुए और ऊपर जौ रखें। उस पर श्री नारायण भगवान की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित करें। एकादशी के दिन स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर धूप दीप नैवेद्य नारियल आदि से भगवान की पूजा करें।
उस दिन भक्ति पूर्व घड़े के सामने व्यतीत करें और रात्रि को भी उसी तरह बैठे रहकर जागरण करना चाहिए। द्वादशी के दिन नदी या तालाब के किनारे स्नान आदि से निवृत्त होकर उस घड़े को ब्राrाण को दे देना चाहिए। हे राम! यदि तुम इस व्रत को सेनापतियों के साथ करोगे तो अवश्य ही विजयी होंगे। श्रीरामचन्द्र जी ने विधिपूर्वक विजया एकादशी का व्रत किया और उसके प्रभाव से दैत्यों के ऊपर विजय पाई।
अत: हे राजन! जो मनुष्य इस व्रत को विधि पूर्वक करेगा, उसकी दोनों लोकों में विजय होगी। श्री ब्रम्हा जी ने नारदजी से कहा था कि पुत्र! जो इस व्रत का माहात्म्य सुनता है उसको वाजपेय यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।
source: Dainik Bhaskar
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